Satyanarayan Puja (सत्यनारायण पूजा)
सत्यनारायण की कथा महत्व,आरती एवं सम्पूर्ण पूजा विधि
हमारे हिंदू धर्म में भगवान विष्णु जी की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। खासतौर पर जब आप किसी विशेष अवसर पर भगवान विष्णु जी का पूजन अपनी पूरी श्रद्धा भाव से करते हैं तब विष्णु भगवान की विशेष कृपा दृष्टि प्राप्त होती है। इसलिए हर महीने की एकादशी, बृहस्पतिवार और पूर्णिमा तिथि को भगवान विष्णु जी का पूजन व कथा करनी चाहिए । भगवान विष्णु के इस पूजन के दौरान लोग सत्यनारायण की कथा भी पढ़ते और सुनते हैं। पुराणों में सत्यनारायण व्रत कथा का बहुत ज्यादा महत्व बताया गया है।
ऐसा माना जाता है कि जो लोग इस कथा को सुनते हैं उनकी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। भगवान सत्यनारायण को भगवान विष्णु जी का ही रूप माना जाता है। शास्त्रों में सत्यनारायण की पूजा का अर्थ है सत्य की नारायण के रूप में पूजा करना। किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले जैसे शादी के पहले , शादी के बाद जब दुल्हन घर आती है तब,घर में बच्चे के जन्म के 1 महीने के बाद भी माँ और बच्चे दोनों को सत्यनारायण की कथा सुनाई जाती है, घर किसी के भी जन्मदिन पर या फिर विशेष मनोकामनाओं की पूर्ति होने के बाद सत्यनारायण भगवान की पूजा की जाती है। भगवान सत्यनारायण का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता है। स्कन्द पुराण में भगवान विष्णु ने नारद को यह कथा सुनाई है और इस व्रत का महत्व भी बताया है।
----आईये जानते हैं घर पर सत्यनारायण कथा करने के फायदे----
यदि आप घर पर खुद से सत्यनारायण जी की कथा करना चाहती हैं तो यह आपके लिए कई तरह से फायदेमंद हो सकता है। सत्यनारायण कथा का पाठ घर पर करने से घर और मन में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहता है और यह पाठ घर के सभी सदस्यों के मन में श्रद्धा का भाव जगाता है। लेकिन इस कथा के लिए आप कुछ नियमों का पालन जरूर करें जिससे विष्णु जी की पूर्ण कृपा दृष्टि आपको प्राप्त हो सके।
----भगवान् सत्यनारायण कथा पूजन सामग्री----
- ठाकुर जी (श्री शालिग्राम जी की मूर्ति)
- लकड़ी का चौका
- कलश के लिए एक लोटा
- आम या अशोक का पंच पल्लव
- केले का पत्ता
- बांस की एक छोटी सी पत्ती सहित दंड्डि
- गाय का गोबर
- चौकी पर बिछाने के लिए लाल या पीला कपड़ा
- आम की लकड़ी
- फूल की माला
- गंगाजल
- दूध
- शहद
- दही
- दूर्वा
- तुलसी पत्र
- घी
- रुई की बत्ती
- पंचमेवा
- लाल चंदन
- पीला चंदन
- सिंदूर
- लौंग
- इलायची
- फल
- सुपारी
- शक्कर
- पान का पत्ता
- फूल
----सत्यनारायण कथा भोग ----
भगवान श्री सत्यनारायण कथा में प्रसाद के लिए गेंहू की पंजीरी का प्रयोग करते हैं. पंजीरी बनाने के लिए सबसे पहले गेंहू के आटे को देशी घी में भूनते है, फिर उसमे गुड या चीनी मिलाते है और उसमे ड्राइ फ्रूट भी मिलाते हैं|
----परिवार की सुख- समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य के लिये करें सत्यनारायण की कथा----
सत्यनारायण की कथा यानी भगवान विष्णु जी की पूजा करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। ऐसा माना जाता है कि इससे सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। ऐसा माना जाता है कि इसका व्रत करने से भगवान विष्णु हमारे सारे कष्टों को हर लेते है।इसलिए घर की शांति और सुख- समृद्धि के लिए भगवान सत्यनारायण की पूजा विशेष लाभकारी होती है। यह पूजा विवाह के लिए और वैवाहिक जीवन को सफल बनाने के लिए भी लाभकारी है। विवाह के पहले और बाद में सत्यनारायण की पूजा करना काफी शुभ होता है। लंबी आयु एवं अच्छे स्वास्थ्य के लिए भी सत्यनारायण जी की कथा और पूजा करना विशेष लाभकारी होता है। सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने के लिए परिवार के साथ- साथ अन्य भक्तों को भी शामिल करें। इससे जीवन में सुख -समृद्धि आती है। इसके साथ ही आप जितने ज्यादा लोगों में कथा का प्रसाद वितरण करती हैं ये उतना ही ज्यादा लाभकारी होता है।
----सत्यनारायण कथा पूजा विधि----
भगवान् सत्यनारायण की कथा आप किसी शुभ कार्य में या किसी भी अन्य दिन किसी ब्राह्मण को बुलाकर सुन सकते हैं. अगर कोई ब्राह्मण न मिले तो खुद भी आप ये पूजा कर सकते हैं| लेकिन अगर आप ये पूजा पूर्णिमा के दिन करे तो बहुत ही शुभ फलदायी होता है|
पूर्णिमा के दिन शाम के समय स्नानादि से निवृत होकर पूजा स्थान के आसान पर बैठ जाएं तथा उसके बाद पूजा वाली जगह पर रंगोली बनाएं |
उसके बाद चौकी को उस पर रखें. फिर चौकी के ऊपर केले का पत्ता रखकर उस पर शालिग्राम भगवान् को विराजें. चावल से नवग्रह बनाएं. उसके बाद साथ ही गौरी-गणेश जी को भी विराजें और कलश रखें. कलश में गंगाजल तथा स्वच्छ जल डालें. उसके उपर आम का पल्लव रखें. फिर उसके ऊपर चावल से भरी कटोरी रखकर उसके ऊपर दीपक रखें. फिर उसे जलाएं|
उसके बाद सबसे पहले कलश का पूजन करें, फिर गौरी गणेश का पूजन करें. उसके साथ ही भगवान् शालिग्राम की पूजा करें तथा सभी देवी-देवताओं का स्मरण करते हुए भगवान् सत्यनारायण की कथा का संकल्प लें.
----आइए जानें सत्यनारायण भगवान की कथा के नियम।----
सत्यनारायण की कथा में करें कलश की पूजा
सत्यनारायण कथा में कलश का बहुत अधिक महत्व है। इस दिन कलश स्थापना करके उसकी पूजा की जाती है। सत्यनारायण कथा में सबसे पहले कलश की पूजा करें, फिर गणेश जी की, उसके बाद सत्य नारायण देव की पूजा कर कथा की शुरुआत करनी चाहिए। इस पूजन में कलश एवं एक नारियल जरूर रखें। ऐसा माना जाता है कि नारियल का फल श्री फल होता है इसलिए यह लक्ष्मी जी का फल माना जाता है जो भगवान विष्णु जी को अत्यंत पसंद होता है।
प्रथम अध्याय
व्यास जी ने कहा: “एक समय की बात है, नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादिक अठ्ठासी हजार ऋषियों ने पुराणवेत्ता श्री सूतजी से पूछा, “हे सूतजी ! इस कलियुग में वेद-विद्यारहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी? तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनिश्रेष्ठ! कोई ऐसा व्रत अथवा तप कहिए जिसके करने से थोड़े ही समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनवांछित फल भी मिले। हमारी प्रबल इच्छा है कि हम ऐसी कथा सुनें।
श्री सूतजी बोले, “हे वैष्णवों में पूज्य! आप सभी ने प्राणियों के हित एवम् कल्याण की बात पूछी है।अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा, जिसे श्रेष्ठमुनि नारद जी ने श्री लक्ष्मीनारायण भगवान से पूछा था और श्री लक्ष्मीनारायण भगवान ने मुनिश्रेष्ठ नारद जी को बताया था। आप सभी श्रेष्ठगण यह कथा ध्यान से सुनें!”
“मुनिश्रेष्ठ नारद दूसरों के कल्याण हेतु सभी लोकों में घूमते हुए एक समय मृत्युलोक में आ पहुँचे। यहाँ बहुत सी योनियों में जन्मे प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मानुसार अनेक कष्टों से पीड़ित देखकर उन्होंने विचार किया कि किस यत्न् के करने से निश्चय ही प्राणियों के कष्टों का निवारण हो सकेगा। मन में ऐसा विचार कर श्री नारद विष्णुलोक गए।“
“वहाँ श्वेतवर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को, जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, तथा वरमाला पहने हुए थे, को देखकर उनकी स्तुति करने लगे।
नारदजी ने कहा, “हे भगवन्! आप अत्यन्त शक्तिवान हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती. आपका आदि-मध्य-अन्त भी नहीं है। आप निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तों के कष्टों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा शत शत नमन है।“नारदजी से इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर विष्णु भगवान बोले, “हे योगिराज! आपके मन में क्या है? आपका किस कार्य हेतु यहाँ आगमन हुआ है? निःसंकोच कहें।“तब मुनिश्रेष्ठ नारद मुनि ने कहा, “मृत्युलोक में सब मनुष्य, जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों द्वारा अनेक प्रकार के कष्टों के कारण दुःखी हैं। हे स्वामी! यदि आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइए कि उन मनुष्यों के सब कष्ट थोड़े से ही प्रयत्न से किस प्रकार दूर हो सकते हैं।“
श्री विष्णु भगवान ने कहा: “हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। जिस व्रत के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, वह व्रत मैं तुमसे कहता हूँ. सुनो, अति पुण्य दान करने वाला, स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनो में दुर्लभ, एक अति उत्तम व्रत है जो आज मैं तुमसे कहता हूँ। श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत विधि-विधानपूर्वक सम्पन्न करने पर मनुष्य इस धरती पर सभी प्रकार के सुख भोगकर, मरणोपरान्त मोक्ष को प्राप्त होता है।
श्री विष्णु भगवान के ऐसे वचन सुनकर नारद मुनि बोले, “हे भगवन्! उस व्रत का विधान क्या है? फल क्या है? इससे पूर्व किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिये? कृपया मुझे विस्तार से समझाएं।“श्री विष्णु भगवान ने कहा, “हे नारद! दुःख-शोक एवम् सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजय दिलाने वाला है। श्रद्धा और भक्ति के साथ किसी भी दिन, मनुष्य सन्ध्या के समय श्री सत्यनारायण भगवान की ब्राह्मणों और बन्धुओं के साथ पूजा करे। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, नैवेद्य, घी, शहद, शक्कर अथवा गुड़, दूध और गेहूँ का आटा, इन सभी को भक्तिभाव से भगवान श्री सत्यनारायण को अर्पण करे। बन्धु-बान्धवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराए। इसके पश्चात् ही स्वयम् भोजन करे। रात्रि में श्री सत्यनारायण भगवान के गीत आदि का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुए समय व्यतीत करे। इस तरह जो मनुष्य व्रत करेंगे, उनकी मनोकामनायें अवश्य ही पूर्ण होंगी। विशेषरूप से कलियुग में, मृत्युलोक में यही एक ऐसा उपाय है, जिससे अल्प समय और कम धन में महान पुण्य की प्राप्ति हो सकती है।
द्वितीय अध्याय
सूतजी ने कहा: “हे ऋषियों! जिन्होंने प्राचीन काल में इस व्रत को किया है, उनका इतिहास मैं आप सब से कहता हूँ; ध्यान से सुनें। अति सुन्दर काशीपुर नगरी में एक अति निर्धन ब्राह्मण वास करता था। वह भूख और प्यास से बेचैन होकर हर समय दुःखी रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री विष्णु भगवान ने उसको दुखी देखकर एक दिन बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर बड़े आदर से पूछा, “हे ब्राह्मण! तुम हर समय ही दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, अपनी व्यथा मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ। “कष्टों से घिरे उस ब्राह्मण ने कहा: “मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता हूँ। हे भगवन! यदि आप इससे मुक्ति पाने का कोई उपाय जानते हों तो कृपा कर मुझे बताएं।“बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण किए हुए श्री विष्णु भगवान तब बोले- हे ब्राह्मण! श्री सत्यनारायण भगवान मनोवाञ्छित फल देने वाले हैं. इसलिए तुम उनका विधिपूर्वक पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता है। दरिद्र ब्राह्मण को व्रत का सम्पूर्ण विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धरे श्री सत्यनारायण भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। बूढ़े ब्राह्मण ने जिस व्रत को बतलाया है, मैं उसको अवश्य विधि-विधान सहित करूँगा, ऐसा निश्चय कर वह दरिद्र ब्राह्मण घर चला गया। परन्तु उस रात ब्राह्मण को नींद नहीं आई।
अगले दिन वह जल्दी उठा और श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय कर भिक्षा माँगने के लिए चल दिया। उस दिन उसको भिक्षा में अधिक धन मिला, जिससे उसने पूजा का सब सामान खरीदा और घर आकर अपने बन्धु-बान्धवों के साथ विधिपूर्वक भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। इसके करने से वह गरीब ब्राह्मण सब कष्टों से छूटकर अति धनवान हो गया। उस समय से वह ब्राह्मण हर मास व्रत करने लगा। सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक करेगा, वह सब कष्टों से छूटकर मोक्ष प्राप्त करेगा। जो भी मनुष्य श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करेगा, वह सब कष्टों से छूट जाएगा। इस तरह नारदजी से सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा।
हे श्रेष्ठ ब्राहमणों! अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझसे कहें?
तब ऋषियों ने कहा: “हे मुनीश्वर! संसार में इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब सुनना चाहते हैं। “मुनियों से ऐसा सुनकर श्री सूतजी ने कहा: “हे मुनिगण! जिस-जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है, उन सबकी कथा सुनो। एक समय वह धनी ब्राह्मण बन्धु-बान्धवों के साथ शास्त्र विधि के अनुसार अपने घर पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहा था। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा व्यक्ति वहाँ आया। उसने सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर बाहर रख दिया और ब्राह्मण के मकान में चला गया। प्यास से बेचैन लकड़हारे ने विप्र को व्रत करते देखा। वह प्यास को भूल गया। उसने विप्र का अभिनन्दन किया और पूछा- हे ब्राह्मण! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है? कृपा कर मुझे बताएं!
तब उस ब्राह्मण ने कहा- सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवन का व्रत है।इनकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन एवम् ऐश्वर्य का आगमन हुआ है। ब्राह्मण से इस व्रत के बारे में जानकर वह लकड़हारा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। भगवान का चरणामृत लेकर और भोजन करने के पश्चात् वह अपने घर को चला गया। और फिर अगले दिन लकड़हारे ने अपने मन में सङ्कल्प किया कि आज गाँव में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा, उसी से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूँगा। मन में ऐसा विचार कर वह लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस दिन उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला। तब वह बूढ़ा लकड़हारा बहुत प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, शहद, घी, दूध, दही और गेहूँ का चूर्ण इत्यादि, श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत की सभी सामग्री लेकर अपने घर आया। फिर उसने अपने बन्धु-बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान के साथ भगवान का पूजन एवम् व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन-धान्य से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ठ को चला गया।
तृतीय अध्याय
श्री सूतजी बोले: “हे श्रेष्ठ मुनियो! अब मैं आगे की एक कथा कहता हूँ। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक महान ज्ञानी राजा था। वह जितेन्द्रिय और सत्यवक्ता था। प्रतिदिन मन्दिरों में जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके दुःख दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान सुन्दर मुख वाली और सती साध्वी थी। एक दिन भद्रशीला नदी के तट पर वे दोनों विधि विधान सहित श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत कर रहे थे। उस समय वहाँ साधु नामक एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था। वह वैश्य नाव को नदी किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया। राजा को व्रत करते हुए देखकर उसने विनम्रतापूर्वक पूछा- हे राजन! यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। कृपया आप यह मुझे भी समझाइये।
महाराज उल्कामुख ने कहा: हे साधु वैश्य! मैं अपने बन्धु-बान्धवों के साथ पुत्र की प्राप्ति के लिए श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा- हे राजन! मुझे भी इसका सम्पूर्ण विधि विधान बताएं। मैं भी आपके कहे अनुसार इस व्रत को करूँगा। मेरी भी कोई सन्तान नहीं है। मुझे विश्वास है, इस उत्तम व्रत को करने से अवश्य ही मुझे भी सन्तान होगी।
राजा से व्रत के सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य सुखपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी पत्नी को सन्तान देने वाले उस व्रत के विषय में सुनाया और प्रण किया कि जब मेरे सन्तान होगी, तब मैं इस व्रत को करूँगा। वैश्य ने यह वचन अपनी पत्नी लीलावती से भी कहे। एक दिन उसकी पत्नी लीलावती श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसने एक अति सुन्दर कन्या को जन्म दिया। दिनों-दिन वह कन्या इस तरह बढ़्ने लगी, जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम उन्होंने कलावती रखा। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का सङ्कल्प किया था, अब आप उसे पूरा कीजिये।
साधु वैश्य ने कहा- हे प्रिय! मैं कलावती के विवाह पर इस व्रत को करूँगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने विदेश चला गया।
लौटने पर साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी वयस्क होती पुत्री को खेलते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता हुई, तब उसने एक दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर देखकर लाए। दूत साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर कन्चननगर पहुँचा और देख-भालकर वैश्य की कन्या के लिए एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया। उस सुयोग्य लड़के के साथ साधू नमक वैश्य ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। दुर्भाग्य से वह विवाह के समय भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूल गया। इस पर श्री सत्यनारायण भगवान अत्यन्त क्रोधित हो गए। उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा। और फिर अपने कार्य में कुशल वह वैश्य अपने दामाद सहित नावों का बेड़ा लेकर व्यापार करने के लिए सागर के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया। रत्नसारपुर पर चन्द्रकेतु नामक राजा राज करता था। दोनों ससुर-जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा चन्द्रकेतु का धन चुराकर भाग रहा था। राजा के दूतों को अपने पीछे तेजी से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वैश्य की नाव में चुपचाप रख दिया, जहाँ वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे और भाग गया। जब दूतों ने उस वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो उन्होंने उन ससुर-दामाद को ही चोर समझा। वे उन ससुर-दामाद दोनों को बाँधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले- आपका धन चुराने वाले ये दो चोर हम पकड़कर लाए हैं, देखकर आज्ञा दें। तब राजा ने बिना उस वैश्य की बात सुने उन्हे कारागार में डालने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कारावास में डाल दिया गया तथा उनका सारा धन भी छीन लिया गया। सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण उस वैश्य की पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुःखी हुईं। उनका सारा धन चोर चुराकर ले गए। मानसिक व शारीरिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुःखी हो भोजन की आस मे कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उसने ब्राह्मण को श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते देखा। उसने कथा सुनी तथा श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से पूछा, “तू अब तक कहाँ रही, मैं तेरे लिए बहुत चिन्तित थी। “माता के शब्द सुन कलावती बोली- हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा है और मेरी भी उस उत्तम व्रत को करने की इच्छा है। कलावती के वचन सुनकर लीलावती ने सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की। उसने बन्धुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन व व्रत किया और वर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही घर लौट आएँ। साथ ही विनती की कि हे प्रभु! अगर हमसे कोई भूल हुई हो तो हम सबका अपराध क्षमा करो। श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से प्रसन्न हो गए। उन्होंने राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा: हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बन्दी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो। उनका सब धन जो तुमने अधिग्रहित किया है, लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हारा राज्य, धन, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा। राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। और फिर प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने दरबार में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वैश्यों को कैद से मुक्त कर दरबार में ले आयें। दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा ने कोमल वचनों में कहा- हे महानुभावों! तुम्हें अज्ञानतावश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो। इसके बाद राजा ने उनको नये-नये वस्त्राभूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दुगना लौटाकर आदर से विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।
चतुर्थ अध्याय
सूतजी ने आगे कहा: वैश्य ने यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दण्डी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने उसकी परीक्षा लेने हेतु उससे पूछा- हे वैश्य! तेरी नाव में क्या है? अभिमानि वणिक हँसता हुआ बोला- हे दण्डी! आप क्यों पूछते हैं? क्या धन लेने की कामना है? मेरी नाव में तो बेल के पत्ते भरे हैं। वैश्य के ऐसे वचन सुनकर दण्डी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान बोले- तुम्हारा वचन सत्य हो! ऐसा कहकर वे वहाँ से चले गए और कुछ दूर जाकर समुद्र के तट पर बैठ गए।
दण्डी महाराज के जाने के पश्चात वैश्य ने नित्य-क्रिया से निवृत्त होने के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्च्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। मूर्च्छा खुलने पर अति शोक करने लगा। तब उसके दामाद ने कहा- आप शोक न करें। यह दण्डी महाराज का श्राप है, अतः हमें उनकी शरण में ही चलना चाहिये, वही हमारे दुःखों का अन्त करेंगे। दामाद के वचन सुनकर वह वैश्य दण्डी भगवान के पास पहुँचा और अत्यन्त भक्तिभाव से पश्चाताप करते हुए बोला- मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उनके लिए मुझे क्षमा करें। ऐसा कहकर वह शोकातुर हो रोने लगा। तब दण्डी भगवान बोले- हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से ही बार-बार तुझे दुख कष्ट प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है। तब उस वैश्य ने कहा- हे भगवन! आपकी माया को ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं जान पाते, तब मैं मुर्ख भला कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइये, मैं अपनी क्षमता अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मेरी रक्षा कीजिये और मेरी नौका को पहले के समान धन से परिपूर्ण कर दीजिये।
उसके भक्ति से परिपूर्ण वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्ध्यान हो गए। तब ससुर व दामाद दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है। फिर वह विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला।
जब वह अपने नगर के निकट पहुँचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा। दूत ने साधु नामक वैश्य के घर जाकर उसकी पत्नी को नमस्कार किया और कहा- आपके पति अपने जमाता सहित इस नगर मे समीप आ गए हैं। लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं। दूत का वचन सुनकर साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन पूर्ण किया और अपनी पुत्री से कहा- मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ, तू पूजन पूर्ण कर शीघ्र आ जाना। परन्तु कलावती पूजन एवम् प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शन के लिए चली गई।
पूजन एवम् प्रसाद की अवज्ञा के कारण भगवान सत्यनारायण ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न पाकर रोती हुई जमीन पर गिर पड़ी। नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुई देख साधु नामक वैश्य द्रवित हो बोला- हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से अज्ञानतावश जो अपराध हुआ है, उसे क्षमा करें।
उसके ऐसे वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गए। आकाशवाणी हुई- हे वैश्य! तेरी पुत्री मेरा प्रसाद छोड़कर आई है, इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है। यदि वह घर जाकर प्रसाद ग्रहण कर लौटे तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा। आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद ग्रहण किया और फिर आकर अपने पति को पूर्व रूप में पाकर वह अति प्रसन्न हुई तथा उसने अपने पति के दर्शन किये। तत्पश्चात साधु वैश्य ने वहीं बन्धु-बान्धवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। वह इस लोक के सभी प्रकार के सुख भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुआ।
पंचम अध्याय
श्री सूतजी ने आगे कहा- “हे ऋषियों! मैं एक और भी कथा कहता हूँ। उसे भी सुनो। प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भगवान सत्यदेव का प्रसाद त्याग कर बहुत दुःख पाया। एक समय राजा वन में वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति भाव से बंधु-बांधवों सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करते देखा, परंतु राजा देखकर भी अभिमानवश न तो वहाँ गया और न ही सत्यदेव भगवान को नमस्कार ही किया। जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उनके सामने रखा तो वह प्रसाद त्याग कर अपने नगर को चला गया। नगर में पहुँचकर उसने देखा कि उसका सब कुछ नष्ट हो गया है। वह समझ गया कि यह सब भगवान सत्यदेव ने ही किया है। तब वह उसी स्थान पर वापस आया और ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यनारायण की कृपा से सब-कुछ पहले जैसा ही हो गया और दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को चला गया।
जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी और बंदी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। संतानहीन को संतान प्राप्त होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में वह बैकुंठ धाम को जाता है।
जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिए। शतानंद नामक ब्राह्मण ने सुदामा के रूप में जन्म लेकर श्रीकृष्ण की भक्ति कर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम के महाराज, राजा दशरथ बने और श्री रंगनाथ का पूजन कर बैकुंठ को प्राप्त हुए। साधु नाम के वैश्य ने धर्मात्मा व सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर अपनी देह को आरे से चीरकर दान करके मोक्ष को प्राप्त हुआ। महाराज तुंगध्वज स्वयंभू मनु हुए. उन्होंने बहुत से लोगों को भगवान की भक्ति में लीन कर मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भील अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा हुआ, जिसने भगवान राम के चरणों की सेवा कर मोक्ष प्राप्त किया।
----सत्यनारायण की कथा में गाई जाने वाली भगवान विष्णु जी की आरती----
ओम जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥ ओम जय जगदीश हरे।
जो ध्यावे फल पावे, दुःख विनसे मन का। स्वामी दुःख विनसे मन का।
सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥ ओम जय जगदीश हरे।
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी। स्वामी शरण गहूं मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूं जिसकी॥ ओम जय जगदीश हरे।
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी।
स्वामी तुम अन्तर्यामी। पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥ ओम जय जगदीश हरे।
तुम करुणा के सागर, तुम पालन-कर्ता। स्वामी तुम पालन-कर्ता।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ ओम जय जगदीश हरे।
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति। स्वामी सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति॥ ओम जय जगदीश हरे।
दीनबन्धु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे। स्वामी तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ओम जय जगदीश हरे।
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा। स्वमी पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ओम जय जगदीश हरे।
श्री जगदीशजी की आरती, जो कोई नर गावे। स्वामी जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख संपत्ति पावे॥ ओम जय जगदीश हरे।
सत्यनारायण कथा में गाई जाने वाली दूसरी आरती
श्री सत्यनारायणजी की आरती
जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा ।
सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा ॥ जय लक्ष्मी… ॥
रत्न जड़ित सिंहासन, अद्भुत छवि राजे ।
नारद करत नीराजन, घंटा वन बाजे ॥ जय लक्ष्मी… ॥
प्रकट भए कलि कारण, द्विज को दरस दियो ।
बूढ़ो ब्राह्मण बनकर, कंचन महल कियो ॥ जय लक्ष्मी… ॥
दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी ।
चंद्रचूड़ एक राजा, तिनकी बिपति हरी ॥ जय लक्ष्मी… ॥
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं ।
सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर स्तुति किन्हीं ॥ जय लक्ष्मी… ॥
भाव-भक्ति के कारण, छिन-छिन रूप धर्यो ।
श्रद्धा धारण किन्ही, तिनको काज सरो ॥ जय लक्ष्मी… ॥
ग्वाल-बाल संग राजा, बन में भक्ति करी ।
मनवांछित फल दीन्हों, दीन दयालु हरि ॥ जय लक्ष्मी… ॥
चढ़त प्रसाद सवायो, कदली फल मेवा ।
धूप-दीप-तुलसी से, राजी सत्यदेवा ॥ जय लक्ष्मी… ॥
सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे ।
तन-मन-सुख-संपति मनवांछित फल पावै॥ जय लक्ष्मी… ॥